Adi shankaracharya

                                  Adi Ahankaracharya 

मैं कौन हूं? अद्वैत वेदांत और शंकराचार्य की दृष्टि से जीवन का उद्देश्य

क्या आपने कभी खुद से पूछा है, “मैं कौन हूं? और मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?” यह सवाल जितना गूढ़ लगता है, उतना ही प्राचीन भी है। भारतीय दर्शन में इस सवाल का उत्तर 1200 साल पहले आदि शंकराचार्य ने दिया — शिवोहम। इसका अर्थ है, "मैं बस शिव हूं," यानी शुद्ध चेतना, अनादि और अनंत। आज हम इसी दर्शन को समझने की कोशिश करेंगे। नमस्कार, मैं हर्षवर्धन झा और आप पढ़ रहे हैं एक ऐसी कहानी, जो जटिलता का विलोम और सरलता का पर्याय है।


शंकराचार्य का जीवन और उनकी शिक्षा

करीब 1200 साल पहले, केरल के पेरियार नदी के किनारे बसे गांव कलाड़ी में शिवगुरु और आर्यां के घर शंकराचार्य का जन्म हुआ। शंकर ने कम उम्र में ही सन्यास लेने की इच्छा जताई। एक कहानी के अनुसार, उन्होंने अपनी मां को राज़ी करने के लिए नदी में नहाते हुए मगरमच्छ के पकड़े जाने का नाटक किया। उनकी मां ने उनकी सन्यास की इच्छा को स्वीकार कर लिया।

सन्यास के बाद, उन्होंने देशभर की यात्रा की और अद्वैत वेदांत दर्शन को प्रचारित किया। यह दर्शन इस विचार पर आधारित है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं — यानी अहम् ब्रह्मास्मि। यह वाक्य उपनिषदों से लिया गया है, जिसका अर्थ है "मैं ब्रह्म हूं।" शंकराचार्य ने इसे अपने अद्वैत दर्शन का मूल बताया। शंकराचार्य ने अपने जीवन में कई बड़े विद्वानों से शास्त्रार्थ किए, जिनमें मंडन मिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ विशेष रूप से प्रसिद्ध है।



मंडन मिश्र और उनकी पत्नी का योगदान

मंडन मिश्र उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान और कर्मकांड के समर्थक थे। उनके और शंकराचार्य के बीच का शास्त्रार्थ भारतीय दर्शन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। कहा जाता है कि यह शास्त्रार्थ 17 दिनों तक चला। मंडन मिश्र की पत्नी, भारती, जो स्वयं भी एक महान विदुषी थीं, इस शास्त्रार्थ की निर्णायक बनीं। उन्होंने निष्पक्षता से शास्त्रार्थ का मूल्यांकन किया।

जब मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में पराजित हुए, तो उन्होंने सन्यास ले लिया और शंकराचार्य के शिष्य बन गए। भारती ने शंकराचार्य से कहा कि उन्होंने केवल मंडन मिश्र को नहीं, बल्कि एक गृहस्थ के संपूर्ण जीवन को पराजित किया है। इसके बाद भारती ने भी शंकराचार्य से कई गहन प्रश्न पूछे, जिससे अद्वैत वेदांत का गहन विवेचन हुआ।


अद्वैत वेदांत का दर्शन

शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के माध्यम से आत्मा और ब्रह्म की एकता को समझाया। उनके अनुसार, हर इंसान में तीन शरीर होते हैं:

  1. स्थूल शरीर: जो हमारी भौतिक देह है।
  2. सूक्ष्म शरीर: हमारा मन और इंटेलेक्ट।
  3. कारण शरीर: हमारे लेटेंट इंप्रेशंस, यानी वो गहरे प्रभाव जो हमें निर्देशित करते हैं।

शंकराचार्य ने बताया कि आत्मा इन सब से परे है। यह इटरनल है और सत्य है। उन्होंने इसे माया और अज्ञान से ढका हुआ बताया। जब यह अज्ञान खत्म होता है, तब व्यक्ति को आत्मज्ञान प्राप्त होता है। उनके अनुसार, आत्मा और ब्रह्म की यह एकता ही मोक्ष का मार्ग है।


अहम् ब्रह्मास्मि: इस वाक्य का गूढ़ अर्थ

"अहम् ब्रह्मास्मि" का तात्पर्य यह है कि हमारी आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ब्रह्म, जो अनंत, शुद्ध और सर्वव्यापी चेतना है, वही हमारी आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। यह दर्शन व्यक्ति को आत्मा की सीमित पहचान से मुक्त करके ब्रह्म की असीम पहचान से जोड़ता है। शंकराचार्य ने कहा कि यह ज्ञान केवल मानसिक अभ्यास या पुस्तकीय जानकारी से नहीं, बल्कि ध्यान, वैराग्य और आत्मनिरीक्षण के माध्यम से प्राप्त होता है।


शंकराचार्य की शिक्षा का आधुनिक उदाहरण

अब इसे एक कहानी के माध्यम से समझते हैं।

अर्जुन और समीर दो महत्वाकांक्षी दोस्त थे। अपनी जिंदगी की दौड़ में उन्होंने करियर और दौलत तो कमा ली, लेकिन उन्हें हमेशा एक कमी महसूस होती थी। एक दिन उन्होंने अपने तीसरे दोस्त आरव, जो एक फिलॉसफी प्रोफेसर था, से मिलने का निश्चय किया। आरव ने उन्हें अद्वैत वेदांत के माध्यम से आत्मा और ब्रह्म का कांसेप्ट समझाया।

आरव ने समझाया कि जैसे सूरज पर बादल छा जाते हैं, वैसे ही हमारे इमोशंस और विचार आत्मा को ढक देते हैं। लेकिन जब हम ध्यान और मनन करते हैं, तब माया के ये बादल हट जाते हैं और आत्मा का प्रकाश दिखता है। उन्होंने यह भी बताया कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए चार योग्यताएं जरूरी हैं:

  1. विवेक — सत्य और असत्य का ज्ञान।
  2. वैराग्य — संसार से अनासक्त रहना।
  3. आत्म-निग्रह — अपने विचारों और इंद्रियों पर नियंत्रण।
  4. मुक्ति की तीव्र इच्छा।

इन योग्यताओं के बाद ही व्यक्ति आत्मा और ब्रह्म की एकता को समझ पाता है।


ज्ञान और कर्म का महत्व

शंकराचार्य के अनुसार, कर्म और ज्ञान के बीच स्पष्ट अंतर है। कर्म से व्यक्ति आत्मज्ञान के लिए तैयार होता है, लेकिन मुक्ति सिर्फ ज्ञान से ही संभव है। उन्होंने कर्मकांड को अज्ञान को खत्म करने में असमर्थ बताया। आरव ने यह समझाने के लिए एक उदाहरण दिया: "मान लो, तुम फेस मास्क पहनकर शीशा साफ कर रहे हो। शीशा साफ होगा, लेकिन तुम्हारा असली चेहरा तभी दिखेगा, जब तुम मास्क हटाओगे। यही ज्ञान का महत्व है।"


मुक्ति का अर्थ और आत्मज्ञान का महत्व

जब व्यक्ति आत्मज्ञान के जरिए यह समझ जाता है कि वह आत्मा है, तब उसे यह भी एहसास होता है कि संसार एक माया है — सपने जैसा अस्थायी। ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। इस स्थिति में व्यक्ति जीवन में रहते हुए भी संसार से मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति उसे सच्ची शांति देती है।


अंतिम विचार

शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत दर्शन न केवल आध्यात्मिक गहराई देता है, बल्कि यह हमें सिखाता है कि आत्मा, जो हमारी असली पहचान है, हमेशा अनंत और अडिग है। यह दर्शन आज के व्यस्त और भौतिकतावादी जीवन में भी उतना ही प्रासंगिक है। आत्मा और ब्रह्म की इस गहरी समझ से जीवन में स्थिरता और शांति पाई जा सकती है।

तो आइए, शंकराचार्य की इस विरासत को समझें और आत्मज्ञान की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाएं।




होस्ट: हर्षवर्धन झा

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